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लोकतंत्र का अपहरण और मीडिया की मूक स्वीकृति "लोकतंत्र की आत्मा संवाद है"

लोकतंत्र का अपहरण और मीडिया की मूक स्वीकृति "लोकतंत्र की आत्मा संवाद है"

          प्रेस विज्ञप्ति 
        लखनऊ उत्तरप्रदेश 

लोकतंत्र का अपहरण और मीडिया की मूक स्वीकृति
“लोकतंत्र की आत्मा संवाद है”

भारत का लोकतंत्र केवल एक संवैधानिक व्यवस्था नहीं, बल्कि एक जीवंत संवाद है जिसमें नागरिकों का अधिकार है कि वे सत्ता से सवाल पूछें, उसकी जवाबदेही तय करें और असहमति व्यक्त करें। यह संवाद संसद से लेकर सड़क और अखबार से लेकर सोशल मीडिया तक में अभिव्यक्त होता है। किंतु आज यही संवाद खतरे में है।

 मीडिया: चौथा स्तंभ या सत्ता का औजार?

लोकतांत्रिक व्यवस्था में मीडिया को ‘चौथा स्तंभ’ कहा गया है, क्योंकि वह न केवल सूचना का माध्यम है, बल्कि जनता और सत्ता के बीच सेतु भी है। लेकिन हाल के वर्षों में मीडिया की भूमिका गहराई से बदली है। अब वह सत्ता की आलोचना करने के बजाय उसकी भाषा बोलने लगा है। टीआरपी और प्रायोजक हितों के दबाव में वह सवाल पूछने के बजाय प्रचार करने लगा है।

विचार से भावनाओं की ओर सरकता विमर्श: मीडिया विमर्श का स्तर गिरता गया है। ज्वलंत मुद्दों — बेरोज़गारी, शिक्षा, स्वास्थ्य, संवैधानिक संस्थाओं की निष्पक्षता — को पीछे छोड़कर चर्चा अब भावनात्मक मुद्दों, राष्ट्रवाद की खोखली परिभाषाओं और सांप्रदायिक बयानों पर केंद्रित हो गई है। इससे जनचेतना में भ्रम की स्थिति बनती है और सत्ता की विफलताओं से ध्यान भटक जाता है।

जनता की भूमिका और सूचना का संकट: जब मीडिया पक्षपाती हो जाए, तब आम नागरिक सटीक जानकारी से वंचित रह जाता है। लोकतंत्र का नागरिक तभी सजग हो सकता है जब वह सच्ची और पूरी सूचना पाए। लेकिन जब मीडिया सत्ता के प्रवक्ता की भूमिका निभाने लगे, तो नागरिक के निर्णय भी भ्रामक हो जाते हैं। यह स्थिति लोकतंत्र को भीतर से खोखला करती है।

चुप्पी का अपराध: सवाल उठता है — क्या मीडिया की चुप्पी एक प्रकार का अपराध नहीं है? जब संविधानिक संस्थाएं कमजोर हो रही हों, अभिव्यक्ति की आज़ादी पर अंकुश लग रहा हो, और चुनावी प्रक्रिया पर संदेह हो रहा हो — उस समय मीडिया की जिम्मेदारी सबसे अधिक हो जाती है। लेकिन अफसोस, अधिकांश मीडिया संस्थान इस ऐतिहासिक जिम्मेदारी से मुँह मोड़ चुके हैं।

लोकतंत्र को चाहिए विवेकशील मीडिया: लोकतंत्र का भविष्य तभी सुरक्षित रहेगा जब मीडिया सत्ता का चमचा नहीं, समाज का दर्पण बने। उसे चाहिए कि वह डर के माहौल में भी सच बोले, सत्ता की गलती को उजागर करे, और जनता की पीड़ा को मंच दे। केवल वही मीडिया लोकतांत्रिक मूल्यों का रक्षक कहलाने योग्य है जो असहमति की आवाज़ को जगह दे सके।

अंततः एक निर्णायक सवाल: आज जब सत्ता केंद्रित नैरेटिव पूरे देश पर हावी है और सवाल पूछने वाला नागरिक ‘राष्ट्रद्रोही’ करार दिया जाने लगा है — तब सबसे बड़ा सवाल यही है: क्या हम एक ऐसे लोकतंत्र में रहना चाहते हैं जहाँ नागरिक मौन हों और मीडिया अंधभक्त?

(यह लेख विचारोत्तेजक स्वतंत्र विश्लेषण है; इसका उद्देश्य लोकतांत्रिक जागरूकता बढ़ाना है)

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